Friday, August 27, 2010

युवा और अवसाद













आज शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में प्रतियोगिता का स्तर बेहद बड़ गया है. इस कारण माता-पिता का दबाव बच्चो पर लगातार बढता जा रहा है. आज युवा वर्ग इस दबाव के कारण साईक्लोजिकल दिसोर्डर और अवसाद का शिकार हो रहा है.युवाओ पर सिर्फ माता-पिता का ही दबाव नहीं है बल्कि सरकार की शेक्षिक और रोज़गारिये नीतियों का भी दबाव है. भले ही आज दसवीं और बाहरवीं में ग्रेडिंग प्रणाली लागू कर दी गयी है परन्तु छात्र मनपसंद विषय मिलने योग्यतानुसार अवसर मिलने पर डिप्रेशन में जाते है और आत्महत्या तक कर लेते है. इन युवाओं को देश का सुनहरा भविष्य कहा जाता है और आज इन्ही युवाओ को आत्महत्या जैसे गैरकानूनी कार्य करने से रोकने में हम नाकाम है. माता-पिता को भी इस बात को समझना होगा कि हर बच्चे का मानसिक और शारीरिक स्तर भिन्न होता है उन्हें उनकी रूचि के अनुसार पढने बढने दिया जाये. साथ ही सरकार को भी इस प्रकार की कारगर नीतियों का निर्माण करना चाहिए जिसमे प्रत्येक छात्र को समान योग्यतानुसार अवसर प्राप्त हो सके.

5 comments:

  1. Renu ji....bilkul sahi likha hai aapne.

    Ye kafi chintajanak shtithi hai.

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  2. माता-पिता और समाज के साथ-साथ अपना भी एक दबाव होता है। अंधी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की दौड़ में लोग इतने ऊपर चले जाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब नीचे से जमीन खिसक गई, जब नीचे गिरते हैं तो टूट जाते हैं।

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  4. Thats true, but suicide is not a solution for any one. No body creates way for us, we have to create it for us. Yes there is lot of competition in life but without competition there is no life.

    Bena competition ke koi b khud ko nahi jan sakta hai, khud ki kabliya ko nahi pehchan sakta hai.

    we all must remember what the great Albert Einstein said "Those who refuse to help me when i needed, i must be thankful to them, because i could'not done it by my own"

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  5. आजादी की लड़ाई के दौरान मैकाले की शिक्षा प्रणाली को ख़त्म करके देश की जनता की जरूरतों के अनुरूप एक नई प्रणाली कड़ी करने का सपना देखा गया था | महात्मा गाँधी के नेतृत्व में नई तालीम की एक क्रांतिकारी कल्पना भी पेश की गई थी | लेकिन आजाद भारत के शासक वर्ग को यह मंजूर नहीं था और उसने मैकाले की शिक्षा प्रणाली को न केवल जारी रखा वरन उसे अपने आर्थिक- राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए और मजबूत किया | इस बात को समझने के लिए भारत में साठ साल के इतिहास को तीन हिस्सों में बताना पडेगा |
    १. १९४७-१९६८ -राज्य- समर्थित पूंजीवाद का निश्चित चरण जिसमे सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र पर हावी था |
    २. १९६८-१९९१- राज्य - समर्थित पूंजीवाद का संकटकालीन चरण जिसमे सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र का संतुलन बदल रहा था |
    ३. १९९१-२०१०- राज्य- समर्थित पूंजीवाद का नवउदारवादी चरण जिसमे निजी क्षेत्र वैश्विक बाजार के जरिये सार्वजनिक क्षेत्र पर हावी है |

    आपने बहुत बड़ी प्रश्न खड़ी की है और जो सही में आज चिन्ता का विषय भी है | हमलोग एक गुलाम देश रहे है इसलिए हमारी जो मानशिकता है वो गुलामी का जो बारीक सा पर्दा है उससे नहीं हट पाई है| तो जब भी कोई सत्ता में आता है शक्ति का केन्द्रीकरण करने की कोशिश करता है| इस शक्ति के केन्द्रीकरण के चक्कर में आज का युवा मर रहा है | आप भी युवा है युवाओं की चिन्ता को अपने ब्लॉग के माध्यम से उठा सकती है|आप की लेखन अच्छी है |NIRAJ SINGH

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